Basant
बसंत
अबके बरस ये कैसा बसंत,
ना खिले मधु-पुष्प, ना मधुकर
गूँजे धरा पर; ना बहारें चमन में,
ना गुदगुदाती धूप, न मुस्कराती कली,
रूठकर अपने सजन से है चली!
अबके बरस ये कैसा बसंत,
बाग में अम्बुआ के कोयल लापता,
कह रही जैसे की अब,
पूछे न कोई उसकी गली का पता,
दादुरों के बीच कोयल खो गई,
टावरों के बीच बुलबुल रो रहीˈ⃓
क्यों कोई पूछे हमारा हाल अब,
मोबाइल की रिंग में सब सुर सजे⃓
वालपेपर में बहारें हैं सजी;
क्यों कोई देखे धरा की ये खुशी,
जबकि इन्टरनेट पे छाई है हंसी;
हर तरफ खुशहाल मानव,
हर तरह परिपूर्ण मानव,
इन बहारों को भूल कर ;
कान में इयर फोन की धुन
में मगन सुनसान मानव,
पंछियों के कलरवों को क्यों सुने वो?
जैज और रैप की धुनों में;
ऋतू बसंत की सुध किसे है?
जब बहारें वर्ष भर उसके भवन में,
कैद होकर मालियों की कुदाली,
की ठोकरें खाकर मुस्कराती;
क्यों बिखेरंगे रंग बसंती इस हवा में?
किसके लिए झूमेंगी डाली कचनार की,
उसके लिए; जो लूट देता सिंगार उसका?
आम के बगीचे में पड़ा भ्रमर,
शायद यही है पूछता इस मंजरी से..
कैसा बसंत किसका बसंत.....
ओम प्रकाश
Submitted By: Om on 10 -Mar-2012 | View: 14295
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