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धरती की वेदना
मन में अजब सी एक हलचल हो रही है।
धरा में ये कैसी खलबली चल रही है॥
आँसू गिराते वृक्षों की पीड़ा।
धरती की छाती को मानव ने चीरा॥
किसको सुनाऊं वेदना अपने मन की।
आवाज लगाके रुदाली कर रही है॥
धरा में ये कैसी खलबली चल रही है॥
शीतल है छाया वृक्षों के तन से।
धरती की माटी अधूरी है इनसे॥
बिना इनके बारिश की बूँदें न आती।
बिन पानी नदियाँ सूनी हो रही है॥
धरा में ये कैसी खलबली चल रही है॥
लहराती फसलें किसानो की आशा।
कोई तो सुन ले इस धरती कि भाषा॥
बिना अन्न के भूख नही मिटेगी।
प्यासी ये धरती सबसे कह रही है॥
धरा में ये कैसी खलबली चल रही है॥
कारखानो के चलते धुवां निकलता।
मानव शरीरों को प्रताड़ित ये करता॥
खुश जिन्दगी को बिमारी से संजोये।
जहर के आँसू ये धरती रो रही है॥
धरा में ये कैसी खलबली चल रही है॥
रिश्ते न नाते कुछ ना बचा है।
कठपुतली पैसे की मानव बन गया है॥
देखें दौड़ मे आगे अब क्या होगा।
रिश्तों की ये डोर टूटती जा रही है॥
धरा में ये कैसी खलबली चल रही है॥
तकनीकि युग मे हम बढे जा रहे है।
संस्कृति अपनी हम छोडे जा रहे है॥
कोई तो समझो मेरे हृदय कि पीड़ा।
आपनी ही माटी तुमको बुला रही है॥
धरा में ये कैसी खलबली चल रही है॥
Submitted By: Shiv Charan on 27 -Dec-2012 | View: 6518
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